Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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गायत्री ने इतनी जल्द थिएटर से लौट आने के लिए क्षमा माँगी। फिर वेश्याओं की बेशरमी की चर्चा की, पर ज्ञानशंकर ने कुछ उत्तर न दिया। उन्होंने आज मन में एक विषम कल्पना की थी और इस समय उसे कार्य रूप में लाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को इस प्रकार एकाग्र कर रहे थे, मानो किसी नदी में कूद रहे हों। उनका हृदयाकाश मनोविकार की काली घटाओं से आच्छादित हो रहा था, जो इधर महीनों से जमा हो रही थीं। वह ऐसे ही अवसर की ताक में थे। उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थिर कर लिया। लक्षणों से उन्हें गायत्री के सहयोग का भी निश्चय होता जाता था। उसका थिएटर देखने पर राजी हो जाना, विद्या के साथ घर न लौटना, उनके साथ अकेले बग्घी में बैठना इसके प्रत्यक्ष प्रमाण थे। कदाचित् उन्हें अवसर देने के ही लिए वह इतनी जल्द लौटी थीं, क्योंकि घर की फिटन पर लौटने से काम के विघ्न पड़ने का भय था। ऐसी अनुकूल दशा में आगा-पीछा करना उनके विचार में वह कापुरुषता थी, जो अभीष्ट सिद्धि की घातक है।


 उन्होंने किताबों में पढ़ा था कि पुरुषोचित उद्दंडता वशीकरण का सिद्धमन्त्र है। तत्क्षण उनकी विकृत-चेष्टा प्रज्वलित हो गयी, आँखों से ज्वाला निकलने लगी, रक्त खौलने लगा, साँस वेग से चलने लगी।

 उन्होंने अपने घुटने से गायत्री की जाँघ में एक ठोंका दिया। गायत्री ने तुरन्त पैर समेट लिए, उसे कुचेष्टा की लेश-मात्र भी शंका न हुई। किन्तु एक क्षण के बाद ज्ञानशंकर ने अपने जलते हुए हाथ से उसकी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी।

 गायत्री ने चौंककर हाथ खींच लिया, मानो किसी विषधऱ ने काट खाया हो, और भयभीत नेत्रों से ज्ञानशंकर को देखा। सड़क पर बिजली की लालटेनें जल रही थीं। उनके प्रकाश में ज्ञानशंकर के चेहरे पर एक संतप्त उग्रता, एक प्रदीप्त दुस्साहस दिखाई दिया। उसका चित्त अस्थिर हो गया, आँखों में अन्धेरा छा गया। सारी देह पसीने से तर हो गयी। उसने कातर नेत्रों से बाहर की ओर झाँका। समझ न पड़ा कि कहाँ हूँ, कब घर पहुँचूँगी। निर्बल क्रोध की एक लहर नसों में दौड़ गयी और आँखों से बह निकली।
 उसे फिर ज्ञानशंकर की ओर ताकने का साहस न हुआ। उनसे कुछ कह न सकी। उसका क्रोध भी शान्त हो गया। वह संज्ञाशून्य हो गयी, सारे मनोवेग शिथिल पड़ गये। केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान हृदय को चीर रहा था। उसकी वह वस्तु लुट गयी जो जान से भी अधिक प्रिय थी, जो उसने मन की रक्षक, उसके आत्म-गौरव की पोषक धैर्य का आधार और उसके जीवन का अवलम्ब थी। उसका जी डूबा जाता था। सहसा उसे जान पड़ा कि अब मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रही। अब तक उसका ध्यान अपने अपमान के इस बाह्य स्वरूप की ओर नहीं गया था। अब उसे ज्ञात हुआ कि यह केवल मेरा आत्मिक पतन ही नहीं है, उसने मेरी आत्मा को कलुषित नहीं किया, वरन् मेरी बाह्य प्रतिष्ठा का भी सर्वनाश कर दिया। इस अवगति ने उसके डूबते हुए हृदय को थाम लिया। गोली खाकर दम तोड़ता हुआ पक्षी भी छुरी को देखकर तड़प जाता है।

गायत्री जरा सँभल गयी, उसने ज्ञानशंकर की ओर सजल आँखों से देखा। कहना चाहती थी, जो कुछ तुमने किया उसका बदला तुम्हें परमात्मा देंगे। लेकिन यदि सौजन्यता का अल्पांश भी रह गया है तो मेरी लाज रखना, सतीत्व का नाश तो हो गया पर लोक सम्मान की रक्षा करना, किन्तु शब्द न निकले, अश्रु-प्रवाह में विलीन हो गये।

ज्ञानशंकर को भी मालूम हो गया कि मैंने धोखा खाया। मेरी उद्विग्नता ने सारा काम चौपट कर दिया अभी तक उन्हें अपनी अधोगति पर लज्जा न आयी थी पर गायत्री की सिसकियाँ सुनीं तो हृदय पर चोट-सी लगी। अन्तरात्मा जाग्रत हो गयी, शर्म से गर्दन झुक गयी। कुवासना लुप्त हो गयी। अपने पाप की अधमता का ज्ञान हुआ। ग्लानि और अनुपात के भी शब्द मुँह तक आये, पर व्यक्त न हो सके। गायत्री की ओर देखने का भी हौसला न पड़ा। अपनी मलिनता और दुष्टता अपनी ही दृष्टि में ही मालूम होने लगी। हा! मैं कैसा दुरात्मा हूँ। मेरे विवेक, ज्ञान और सद्विचार ने आत्महिंसा के सामने सिर झुका दिया। मेरी उच्चशिक्षा और उच्चादर्श का यही परिणाम होना था! अपने नैतिक पतन के ज्ञान ने आत्म-वेदना का संचार कर दिया। उनकी आँखों से आँसू की धारा प्रवाहित हो गयी।

दोनों प्राणी खिड़कियों से सिर निकाले रोते रहे, यहाँ तक कि गाड़ी घर पर पहुँच गयी।

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2 Comments

Gunjan Kamal

18-Apr-2022 05:26 PM

👏👌👌🙏🏻

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Shnaya

15-Apr-2022 01:50 AM

बहुत खूब

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